यह ऐक सर्वविदित तथ्य है कि वास्तु एक विज्ञान है। इसमें निहित समस्त सिद्धांत ठोस वैज्ञानिकता पर आधारित है। इस विज्ञान में मुख्यतः पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति, पृथ्वी का गुरुत्व, ऊर्जा का प्रवाह एवं परिवर्तन तथा विभिन्न-विकिरणों को वैज्ञानिक आधार देकर समन्वय किया गया है। दूसरी तरफ ज्योतिष शास्त्र भी एक ठोस विज्ञान है। इसके अंतर्गत भी विभिन्न ग्रहों के आकर्षण एवं विकिरणों का जीवों पर जो प्रभाव पड़ता है उसे समझया गया है। वास्तु विज्ञान तथा ज्योतिष विज्ञान दोनों एक दूसरे के पूरक प्रतीत होते हैं क्यों की दोनों ही में मानव मात्र के चहुँमुखी कल्याण का मार्गदर्शन है। गहराई में प्रवेश करने पर एक बड़ा ही चमत्कारिक तथ्य सामने आता है, जिसे
जान-समझ कर वास्तु संबंधी दोषों को ज्योतिष उपायों के माध्यम से दूर किया जा सकता है। इस विधि को समझने हेतु पहले पत्रिका के बारह भावों की, उनके स्वामियों की एवं उनकी दिशाओं की जानकारी होना अनिवार्य है जो की निम्नानुसार है:-

(1) प्रथम भाव- इसकी दिशा पूर्व है। इसके स्वामी सूर्य है।
(2) द्वतीय भाव- इसकी दिशा ईशान्य है। इसके स्वामी गुरु है।
(3) तृतीय भाव- इसकी भी दिशा ईशान्य है। इसके स्वामी भी गुरु है।
(4) चतुर्थ भाव- इसकी दिशा उत्तर है। इसके स्वामी बुध हैं।
(5) पंचम भाव- इसकी दिशा वायव्य है। इसके स्वामी चंद्र हैं।
(6) षष्ट भाव- इसकी दिशा भी वायव्य है। इसके स्वामी भी चंद्र है।
(7) सप्तम भाव- इसकी दिशा पश्चिम है। इसके स्वामी शनि है।
(8) अष्टम भाव- इसकी दिशा नैऋत्य है। इसके स्वामी राहु है।
(9) नवम भाव- इसकी दिशा भी नैऋत्य है। इसके स्वामी भी राहु हैं।
(10) दशम भाव- इसकी दिशा दक्षिण है। इसके स्वामी मंगल हैं।
(11) एकादश भाव- इसकी दिशा आग्नेय है। इसके स्वामी शुक्र हैं।
(12) द्वादश भाव- इसकी दिशा भी आग्नेय है। इसके स्वामी भी शुक्र हैं।

विभिन्न भावों की दिशा एवं स्वामियों को समझने के पश्चात् आइये, अब समझे की वास्तु दोषो में ज्योतिष विज्ञान क्या मदत कर सकता है? जब भी कभी हमें जानना हो कि किसी भवन में क्या वास्तुदोष है? और उसका निवारण कैसे हो सकेगा तब उस भवन के मुहूर्तकाल की पत्रिका बनाइये। अगर भवन का मुहूर्त काल ज्ञात न हो तो भवन स्वामी की पत्रिका ही ले लें तथा उस पत्रिका में मात्र यह देखें की उसमे कौन-कौन भाव बिगड़े हुए हैं, अर्थात वे पाप ग्रहों से युक्त है अथवा उनके स्वामी नीच राशि में है या फिर ऋणात्मक युतियां बना रहे हैं। एक ज्योतिषीय के लिए यह कार्य कठिन नहीं है। बस पत्रिका में जो भाव बिगड़े होंगे, वही क्षेत्र उस भवन का दोष युक्त होगा। इसमें तनिक भी संदेह नहीं। संदेह करने वाले समझ लें की एक भवन का वास्तु मात्र ज्योतिषीय व्यवस्था नहीं होता बल्कि उससे कहीं अधिक उसका आंतरिक दोष महत्त्व रखता है।

उदाहरण के लिए- अगर पत्रिका का प्रथम भाव दोषपूर्ण है तो- पारिवारिक जनो की मानसिक अशांति, अस्थिरता, दुष्ट-बुद्धि, झूठ बोलने की आदत, कोर्ट-कचहरी के चक्कर, मान-प्रतिष्ठा पे आंच, वैवाहिक जीवन तनावपूर्ण होंगे।

अगर यहीं द्वितीय भाव दोषपूर्ण है तो- परिवार में अस्वस्था, आर्थिक स्थिति का डावाडोल होना, पुरुष संतान में न्यूनता, अत्यधिक संघर्ष, अपयश, दैवीय कृपा का आभाव, घर का पैसा फंस जाना,कटु वाणी, कौटुम्बिक कलह, वैवाहिक जीवन का विच्छेदन आदि-आदि समस्याएं उस भवन में देखने को मिलेंगी। इसी प्रकार अन्या-अन्य भावों को देखा जा सकता है।

अब जिस भी भाव के दोष हो उनसे सम्बंधित ग्रहों के घर में मन्त्र-जाप एवं एकाधिक ग्रहों के एक ही ताम्रपत्र पे उनके यंत्रों का निर्माण करवाकर विधिवत पूजा-गृह में स्थान देना चाहिए जिससे उस गृह में सम्बंधित कष्टों से छुटकारा मिलने का मार्ग प्रसस्त होगा।

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