मूर्तिपूजा और रामायणकाल🌷
रामायणकाल का ठीक-ठीक समय निश्चय करने में तो इतिहासज्ञों में मतभेद हो सकता है,किन्तु यह सर्वमान्य है कि रामायण में वर्णित ऐतिहासिक घटना महाभारत से दीर्घकाल पूर्व घटी।यह वह समय था जब वैदिक मर्यादा तथा आर्य-संस्कृति का लोप नहीं हुआ था।किन्तु इतना स्पष्ट है कि मांसाहार,सुरापान आदि आसुरी प्रवृत्तियों का सूत्रपात हो गया था।वैदिक कर्मकाण्ड में प्रवृत्त ऋषि-मुनियों के यज्ञों को मांसादि अपवित्र वस्तुओं से विध्वंस करने की दुष्ट चेष्टा प्रारम्भ हो गयी थी।यदि देखा जाए तो इन्हीं वैदिक यज्ञों एवं संस्कृति की रक्षार्थ उस समय जो कुछ प्रयत्न किया गया,वही रामायण की कथा का मुख्य कथानक है।
इस समय रामायण-सम्बन्धी जितनी भी सामग्री अनेक ग्रन्थों के रुप में उपलब्ध है,उन सबका आधार ऋषि वाल्मीकि-कृत रामायण ही है।किन्तु बाल्मीकि रामायण में भी प्रक्षिप्त सामग्री की न्यूनता नहीं है।इस समय वाल्मीकि रामायण की दो प्रकार की प्रतियाँ मिलती हैं,एक गौड़ वा बंग देश की और दूसरी बम्बई की।बम्बई की प्रति में बंग देश की प्रति से एक कांड(उत्तरकाण्ड) ९३ सर्ग तथा ४७३५ श्लोक अधिक हैं।इटली भाषा में गौरीसियो संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान्-कृत रामायण का जो अनुवाद मिलता है,उसमें भी उत्तरकाण्ड-रहित केवल छः काण्ड हैं।इसी प्रकार चम्पू रामायण जो महाराज भोज के समय बनी थी और जिसमें बाल्मीकि रामायण का सार लिखा है,युद्धकाण्ड तक ही है।
युद्धकाण्ड-समाप्ति पर स्वयं वाल्मीकि रामायण में रामायण का महात्म्य वर्णन किया गया है जोकि किसी ग्रन्थ के आदि या अन्त में ही लिखा जाता है,सिद्ध करता है कि उत्तरकाण्ड का समावेश पीछे से किया गया है।
इस प्रकार उपर्युक्त स्पष्ट प्रक्षिप्त भागों के होते हुए भी समस्त रामायण में सर्वत्र केवल वैदिक यज्ञों का वर्णन है,मूर्तिपूजा का कहीं उल्लेख नहीं है।मनुस्मृति की भाँति बाल्मीकि रामायण में भी माँसाहार एवं यज्ञ में पशुबलि दी जाने की पुष्टि तो कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों द्वारा अवश्य की गयी है,जिसमें वाममार्ग का स्पष्ट हाथ दृष्टिगोचर होता है,किन्तु मूर्ति-पूजा विषयक श्लोकों का सर्वथा अभाव,यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि जिस समय में प्रक्षिप्त भाग मिलाये गये,उस समय में भी इस देश में मूर्तिपूजा जारी नहीं हुई थी।अतः मूर्तिपूजा का प्रचार इस देश में बौद्ध काल से पूर्व नहीं था।
बाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड से निम्न श्लोक मूर्तिपूजा के पक्ष में प्रायः उपस्थित किया जाता है-
यत्र यत्र स्मयाति स्म रावणो राक्षेश्वरः ।
जाम्बूनदमयं लिंगं तत्र तत्रस्म नीयते ।।
रावण जहां-जहां जाता है,अपने साथ सुवर्णमय लिंग ले जाता है।
प्रथम तो यह श्लोक उत्तरकाण्ड का है,जिसे प्रक्षिप्त सिद्ध किया जा चुका है।किन्तु इन्हें यदि ठीक मान लिया जाए तो यह कृत्य राक्षसी था।यह भी ठीक ही है कि शिवलिंग-पूजा का प्रचार वाममार्ग द्वारा हुआ और रावण भी वाममार्गी ही था।अतः इससे हमारे पक्ष की हानि नहीं होती।
उस समय आर्य लोग प्रातः-सायं संध्योपासना,अग्निहोत्र करते थे,इसका वाल्मीकि रामायण में बहुलता से वर्णन है।
विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण से कहा कि-
स्नाताश्च कृतजप्याश्च हुतहव्या नरोत्तम ।-(सर्ग १८ /२३ बालकाण्ड)
हम लोग स्नान करेंगे और जप करके हवन करेंगे।
ततश्चीरोत्तरासंगः संध्यामन्वास्य पश्चिमाम् ।
जलमेवाददे भोज्यं लक्ष्मणेनाह्रतं स्वयम् ।। ४८ ।।-(सर्ग ५०,अयो० काण्ड)
तदनन्तर रामचन्द्र ने चीर ओढ़कर सायंकाल की सन्ध्या की और लक्ष्मण का लाया हुआ जल ही ग्रहण किया।
इसी प्रकार भरत और शत्रुघ्न के भी हवन और जप करने का उल्लेख है:-
रजन्यां सुप्रभातायां भ्रातस्ते सुह्रद्वृताः ।
मंदाकिन्यां हुतं जप्यं कृत्वा राममुपागमत् ।। २ ।।-(सर्ग १०५,अयो०काण्ड)
रात्रि के बीतने पर वे भाई मित्रों के साथ मंदाकिनी-तट पर स्नान,हवन और जप करके रामचन्द्र के पास गये।
सीता महारानी भी सन्ध्या करती थीं।हनुमान जी सीता की खोज करते हुए अशोक वाटिका के सरोवर को देखकर कहते हैं:-
सन्ध्याकाल मनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदीं चेमां शुभजलां सन्ध्यार्थेवरवर्णिनी।। ५० ।।
यदि जीवति सा देवी ताराधिपतिमानना ।
आगमिष्यति साsवश्यमिमां शीतजला नदीम् ।। ५१ ।।
-(सर्ग १४ ।सुन्दर काण्ड)
अर्थात्-सन्ध्या-काल में मनवाली देवी सीता सन्ध्या करने के लिए इस शुभ जल वाली नदी पर आवेगी।यदि वह चन्द्रमुखी देवी जीवित है तो इस शीतल जल वाले सुरम्य सरोवर पर अवश्य आवेगी।