महाशिवरात्रि का पर्व भगवान शिव के लिंग रूप में प्राकट्य के शुभावसर के रूप में मनाया जाता है। जैसा की सर्वविदित है,भगवान शिव का ज्योतिर्मय लिंग रूप में प्राकट्य फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को अर्धरात्रि में हुआ था। वह लिंग इतना प्रकाशवान् था कि उसके बारे में ईशान संहिता में कहा है ‘ कोटिसूर्यसंप्रभः ‘ । उसका आदि- अंत स्वयं जगपालक भगवान विष्णु एवं जगकर्ता ब्रह्मा जी भी नहीं खोज पाए। वस्तुतः वह लिंग ब्रह्माण्ड व्याप्त था। दूसरे शब्दों में कहें तो समस्त ब्रह्माण्ड उसमे समाहित था। ब्रह्माण्ड का आकार भी तो लिंगरूपी है। महाविष्णु एवं ब्रह्मा जी भी इसी लिंग में समाहित हो गए। देवताओं की प्रार्थना पर उस महालिंग से द्वादश ज्योतिर्लिंगों का उद्भभव हुआ।
ज्योतिषशास्त्र में भगवान शिव एवं उनकी उपासना का विशिष्ठ स्थान है। शिव चतुर्दशी तिथि के तिथीस है, तो आर्द्रा नक्षत्र के स्वामी भी हैं। हर्षण एवं व्यतिपात योगों का स्वामी भी रूद्र को ही माना गया है। दैनिक मुहूर्तों में वे दिन और रात्रि दोनों ही के प्रथम मुहूर्तों के स्वामी हैं। विभिन्न प्रकार के अरिष्टों के शमन के लिए भी शिवोपासना का निर्देश जयोतिषग्रंथों मिलता है। कृष्ण चतुर्दशी, तिथिक्षय, भद्रा कारण, व्यतिपात आदि दुष्ट योगों, यमघंट आदि दुर्योगों में जन्म को अनिष्टकारी माना गया है। ईसके समन के लिए भगवान शिव का अभिषेक, महामृत्युंजय मंत्र का जप, शिवालय में दीपदान इत्यादि उपाय बताये गए हैं। इसी प्रकार सूर्यसंक्रांति में जन्म सम्बन्धी दोष के शमन के लिए भी शिवोपासना की जाती है। इसमें मुख्य रूप से नक्षत्रदेव आदि की पूजा की जाती है , परंतु साथ ही महामृत्युंजय मंत्र का यथा शक्ति जप का भी प्रावधान है। मारक दशाओं के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए सर्वाधिक कारगर उपाय के रूप में शिव के मृत्युंजय स्वरूप् की उपासना का उल्लेख मिलता है। बृहत्पराशरहोराशास्त्र में उल्लेख है कि द्वितीयेश एवं सप्तमेश की दशा के दोषों के परिहार में रुद्राभिषेक एवं महामृत्युंजय मन्त्र जपना चाहिए। अन्य अनिष्टकारी दशाओं में रुद्राभिषेक एवं महामृत्युंजय मंत्र के साथ-साथ शिव सहस्त्रनाम का पाठ , शिव प्रतिमा का दान , शिव के लिए यज्ञ इत्यादि उपायों का वर्णन मिलता है।
संतानहीनता से सम्बन्धित दोषों के निवारण में भी शिवोपासना एक उपाय के रूप में की जाती है। यदि संतानहीनता का कारण शुक्र , शनि एवं मंगल हैं, तो भगवान शिव या रूद्र की आराधना से संतान प्राप्ति का निर्देश बृहत्परशरहोराशास्त्र में दिया गया है। पूर्वजन्म के पापों के प्रायश्चित के लिए कर्मविपाक संहिता में शिवोपासना का परामर्श दिया है। अष्टकूट मेलापक में यदि नाड़ी दोष है, तो उसकी शांति के लिए महामृत्युंजय मंत्र के जप आदि का विधान है। आधुनिक ज्योतिष में शीघ्र विवाह , दाम्पत्य जीवन में टकराव , पुत्र एवं संतान की प्राप्ति, चंद्र एवं शनि सम्बन्धी दोषो के शमन इत्यादि में शिवोपासना का प्रचलन है।
शिव अभिषेक
भगवान शिव के अभिषेक से वे सर्वाधिक रूप से प्रसन्न होते हैं। शात्रों में अनेक प्रकार के द्रव्यों से शिवलिंग के अभिषेक करने का निर्देश दिया गया है। इस महाशिवरात्रि पर आप सभी मित्रगण इन विशिष्ठ द्रव्यों से अभिषेक कर अपनी-अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति कर सकते हैं।
* जल से अभिषेक करने पर वृष्टि ( वर्षा ) होती है।
* कुशोदक से अभिषेक करने पर हर प्रकार की व्याधि की शांति होती है।
* दही से अभिषेक करने पर पशुधन की प्राप्ति होती है
* लक्ष्मी प्राप्ति हेतु गन्ने के रस से भगवान शिव का अभिषेक करना चाहिए
* धन प्राप्ति के लिए घी एवं शहद से अभिषेक करना चाहिए
* मोक्ष प्राप्ति के लिए तीर्थों के जल से अभिषेक करने का निर्देश प्राप्त होता है
* जिन्हें संतान प्राप्ति की अभिलाषा हो उन्हें गाय के दूध से भगवान शिव का अभिषेक करना चाहिए
* ज्वर की शांति हेतु जल की धार भगवान शिव पे चढ़ानी चाहिए
* ॐ नमः शिवाय मंत्र के १००० जप के साथ घी की धार से अभिषेक करने से वंश का विस्तार होता है।
* प्रमेह रोग के विनाश के लिए दुग्ध की धारा से अभिषेक करना चाहिए। ऐसा करने से मनोकामनाओं की भी पूर्ति होती है।
* बुद्धि की जड़ता को दूर करने के लिए शक्कर मिले दूध से अभिषेक करना चाहिए।
* जिन व्यक्तियों को शत्रुकृत परेशानिया अधिक हैं उनके लिए सरसो के तेल से अभिषेक करने से लाभ होता है।
* तपेदिक ( टी.वी ) रोग के शमन हेतु शहद से अभिषेक का निर्देश है।
* जिन लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ रहती हैं उन्हें घी से अभिषेक करना चाहिए। ऐसा करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है।
* जिन व्यक्तियों की पत्रिका में अल्पायु योग है उन्हें गाय के दूध से अभिषेक करना चाहिए
* पुत्र प्राप्ति हेतु शर्करा युक्त जल से अभिषेक करने से मनोकामना पूर्ण होती है। यदि यह अभिषेक रुद्रपाठ पाठ के साथ पूर्ण किया जाय , तो निस्चय ही अभिलाषा पूर्ण होती है ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है।
जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशान्त्यै कुशोदकै ।।
दध्ना च पशुकामाय शरिया इछुरसेन च।
मध्वाज्येंन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा ।
पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात ।
वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवत्सा च यांगना।।