संधि’
जहाँ दो मार्ग मिलते हैं अर्थात एक मार्ग का अंत होता है और दूसरे का आरम्भ होता है, प्रायः वही पर क्षति की घटनाएं
( Accident ) होती है। अतः परिवहन विभाग की ओर से सड़कों के किनारे सावधान करने के लिए लिखा रहता है
‘ Beware of turn ‘ अर्थात मोड़ से खबरदार रहें। आयुर्वेदिक शास्त्र का सिद्धांत है कि जब एक ऋतु की समाप्ति होती है और दूसरी का आरम्भ होता है तो रोगों की उत्पत्ति होती है
‘ ऋतूसन्धिषु व्याधयः जायन्ते ‘ अर्थात ऋतुओं के संधिकाल में व्याधियाँ उत्त्पन्न हुआ करती हैं।

जब एक बालक बाल्यावस्था से यौवन में प्रवेश करता है तो आयु का वह ‘संधि’ काल, जिसे अंग्रेजी में ‘ puberty कहते हैं जीवन के लिए कितना भयावह हो सकता है यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। समिष्ट रूप से भी कोई जाती दासता से निकल कर स्वतंत्रता में पदार्पण करती है तो वह ‘ संधिकाल’ भी बहोत महत्व रखता है और यदि सावधानी न बरती जाये तो बहुत भयानक सिद्ध हो सकता है जैसा की भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 1947 में हुआ था जिसमे लाखों लोगों ने जान गवाईं ।

संधि का समय सर्वदा नैसर्गिक प्रभाव, राज्य, शासन, संयम, स्वास्थ्य से हीन होता है। यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने प्रभु के चिंतन के लिए सायं और प्रातः की संधि का समय ही निर्धारित किया था।

अतः उपरोक्त नियमों को देखते हुए आप ज्योतिष के क्षेत्र में भी इस बात को भली प्रकार समझ सकते है की जब एक राशि अथवा नक्षत्र की समाप्ति होने लगती है और दूसरी राशि अथवा नक्षत्र का आरम्भ होता है तब दोनों के बिच में आने वाला जो संधिकाल होता है वह स्वास्थ्य तथा आयु के लिए बहुत हानिप्रद हो सकता है। मनुष्य की ‘ गंड मूल ‘ में उत्पत्ति को इसी कारण अशुभ माना गया है । कर्क राशि का जब अंत होता है और सिंह राशि का आरम्भ होता है। दूसरे शब्दों में, कर्क राशि और सिंह राशि के बिच की संधि का समय राशि तथा नक्षत्र दोनों ही दृष्टिकोणों से ‘ संधि’ का समय होने के कारण स्वास्थ्य के लिए भयावह ( Critical ) सिद्ध हो सकता है, यदि उस संधि पर शुभ प्रभाव न हो । जैसे माता-पिता का शुभ प्रभाव पुत्र को उसके यौवन पदार्पण ( Puberty ) काल की आपत्तियों से बचाने वाला होता है, इसी प्रकार शुभ ग्रहों का
‘ संधिकाल’ चंद्र लग्न आदि पर प्रभाव जीवन को आपत्तियों– रोग, मृत्यु आदि से रक्षा करने वाला होता है। दूसरी महत्वपूर्ण संधि वृश्चिक राशि के अंत में तथा धनु राशि के आरम्भ में पड़ती है। यहाँ भी एक नक्षत्र ( ज्येष्ठा ) का अंत और दूसरे नक्षत्र मूल का आरम्भ होता है। तीसरी संधि मीन राशि के अंत में तथा मेष राशि के आरम्भ में पड़ती है और उसी स्थान पर रेवती नक्षत्र की समाप्ति तथा अश्विनी नक्षत्र का आरम्भ होता है।

तात्पर्य यह है की यदि मनुष्य के लग्न में इन तीनो संधियों में से कोई एक संधि हो , अथवा चंद्रमा इन तीनो संधियों में से एक में स्थित हो अथवा सूर्य इन तीनो में से किसी एक संधि में पड़ा हो तो मनुष्य का जीना कठिन हो जाता है जबतक की वे सन्धियां शुभ प्रभाव में न हों

जैसा की ‘ देवकेरल’ के लेखक का कर्क लग्न के सम्बन्ध में कहना है–

षष्ठे जीवे सुरांशरस्थे दशमे चंद्रसंस्थिते ।
नक्षत्रगण्डदोषस्तु नास्तीति मनुरब्रवीत् ।।

अर्थात यदि चंद्र दशम स्थान में संधिगत हो अर्थात मेष के बिलकुल आरम्भ में हो , परंतु यदि गुरु षष्ठ में हो तो चंद्रकृत गण्ड दोष का नाश हो जाता है यहाँ गण्ड दोष नाश में कारण गुरु की चन्द्र पे दृष्टि हुई।

संधिकाल के उपरोक्त महत्व को ध्यान में रखते हुए ही कहा गया है;

देहे पापग्रहे काले देहपीड़ां विनिर्दिशेत् ।
जीवभागे जीवनाशं दशासन्धौ महाविपत् ।।

अर्थात दशा के संधिकाल में प्रायः विपत्ति ही आती है।

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