गीता’ का आकर्षक विषय ‘

वर्ण’ है। यह आराधना की एक विधि-विशेष है जिसको चार श्रेणियों में बाँटा गया है। ये हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह साधक का ऊँचा-नीचा स्तर है न कि जाति।

👉गीता’ में ‘यज्ञ’ को साधना की विशेष क्रिया बताया गया है और ‘कर्म’ के विषय में कहा गया है कि यज्ञ को कार्यरूप देना ही कर्म है।

👉🏼 श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण गीता में बार-बार एक ही ‘सत्य’ को दृढ़ाया कि आत्मा ही सत्य है, यही परमसत्य है। सम्पूर्ण गीता में बार-बार एक ही सत्य को दृढ़ाया कि आत्मा ही सत्य है, यही परमसत्य है। सम्पूर्ण भूतादिकों के शरीर नाशवान् हैं।

👉🏼 ‘सनातन धर्म’ परमात्मा से मिलानेवाली क्रिया है। ‘युद्ध’ को कहा गया कि यह दैवी एवं आसुरी सम्पदाओं का संघर्ष है, जो अंतःकरण की दो प्रवृत्तियाँ हैं। इन दोनों का मिटना परिणाम है। ‘युद्ध-स्थान’ मानव-शरीर और मनसहित इन्द्रियों को बताया गया।

👉🏼 ‘देवता’ हृदय-देश में परमदेव का देवत्व अर्जित करानेवाले गुणों का समूह है। बाह्य देवताओं की पूजा मूढ़बुद्धि की देन है।

👉🏼 ‘अवतार’ हृदय-देश में होता है, बाहर भूखण्डों में कल्पना मात्र है।

👉🏼 एकमात्र परात्पर ब्रह्म ही ‘पूजनीय देव’ है। उसे खोजने का स्थान हृदय-देश है। उसकी प्राप्ति का स्रोत अव्यक्त स्वरूप में स्थित प्राप्तिवाले महापुरुषों के द्वारा है।

👉🏼 गीता में धर्म का स्वरूप:योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है और सत का कभी अभाव नहीं है। परमात्मा ही सत्य है, शाश्वत है। अजर, अमर, अपरिवर्तनशील और सनातन है; किन्तु वह परमात्मा अचिन्त्य और अगोचर है, चित्त की तरंगों से परे है। चित्त का निरोध करके उस परमात्मा को पाने की विधि-विशेष का नाम कर्म है। इस कर्म को कार्यरूप देना ही धर्म है।

👉🏼 धर्म में प्रवेश का अधिकार:योगेश्वर कहते हैं- अर्जुन! अत्यन्त दुराचारी भी यदि अनन्य भाव से मुझे भजता है, मुझे छोड़कर अन्य किसी को नहीं भजता, तो वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है। उसकी आत्मा धर्म से संयुक्त हो जाती है। अतः एक परमात्मा के प्रति समर्पित व्यक्ति ही धार्मिक है।

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