कोई ग्रह किसी राशि अथवा नक्षत्र में हि क्यों उच्च होता है यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस सम्बन्ध में विविध विद्वानों के विविध मत हैं। परंतु हमारा मंतव्य यह है कि क्यों की ज्योतिष शास्त्र मूलतः वेद का अंश है, इसलिए इसकी मौलिक मान्यताएं वेद-सम्मत अर्थात आध्यात्मिक पक्ष को लेकर होनी चाहिए। इसी आध्यात्मिक पक्ष को लेकर हम द्वादश स्थान को मोक्ष का स्थान निर्धारित करते हैं, क्योंकि मौलिक ( नया ) नियम है कि किसी भाव से उसका व्यय ( बारहवां ) स्थान उसका मारक होता है। जैसे अष्टम और तृतीय स्थान से द्वादश स्थानों के स्वामी अर्थात सप्तम तथा द्वितीय भावों के स्वामी मारक होते हैं। इसी प्रकार मन-बुद्धि तथा स्थूल-सूक्ष्म कारण शरीर के घोतक प्रथम भाव से द्वादश स्थान का स्वामी मन, बुद्धि, अहंकार आदि का नास करता हुआ मोक्ष पद का परिचायक होता है। इसी प्रकार समस्त कुंडली का फल भी पूर्वकृत कर्मो अर्थात प्रारब्ध फल का घोतक है। इसी प्रकार प्रथम भाव से द्वादश भाव तक का क्रम एक आध्यात्मिक विकाश क्रम है। कहने के तात्पर्य यह है कि जब सब तरह ज्योतिषशास्त्र अध्यात्मिकता को लेकर चलता है तो ग्रहों की उच्चता के विषय में में भी उसकी मान्यता मूलतः आध्यात्मिक ही होनी चाहिए।
अब आप जानते ही हैं कि सूर्य मेष राशि के दशम अंश पर उच्च माना गया है। मेष राशि का दशम अंश अश्विनी नक्षत्र में पड़ता है। अतः सूर्य अश्विनी नक्षत्र में उच्च होता है। अब प्रश्न है कि क्यों अन्य किसी नक्षत्र में सूर्य उच्च नहीं होता। इसका उत्तर यह है कि सूर्य आत्मा है जैसा की वेद वाक्य है
“सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च”। अर्थात सूर्य स्थावर जंगम सब संसार की आत्मा है। ‘यतपिण्डे तद्ब्रह्माण्डे’ के नियमानुसार हमारा जीवात्मा भी सूर्य द्वारा प्रतिनिधित्व पता है तो स्पष्ट है कि अश्विनी नक्षत्र क्यों की केतु का नक्षत्र है और केतु मोक्ष कारक ग्रह है। इसी लिए सूर्य को अश्विनी नक्षत्र में उच्च का माना है। यही बात आप चंद्र के सम्बन्ध में भी विचार सकते हैं। जब चंद्रमा ( मन ) वृषभ राशि के तृतीय अंश ( कृतिका नक्षत्र ) अर्थात सूर्य के नक्षत्र में होता है तो उच्च माना जाता है।
हमने स्वीकार्य कर लिया की मन जब सूर्य के नक्षत्र में होता है अर्थात आत्मा को प्राप्त कर लेता है तो उसको परमपद अथवा उच्चता की प्राप्ति होती है। यही दशा अन्य ग्रहों की उच्चता की है। सूर्य जब मोक्ष घोतक नक्षत्र अश्विनी में होता है तो पाप राशि मेष में उसकी स्थिति उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। मन जब आत्मप्रद कृत्तिका नक्षत्र में हो तो वृषभ की भोगात्मक राशि उसको प्रलोभित नहीं कर सकती। इसी प्रकार एक सच्चा सिपाही मंगल शत्रु के घर ( मकर राशि ) में स्थित होकर भी अपनी प्रकृति अर्थात चित्रा नक्षत्र ( जो मंगल का ही नक्षत्र है ) में सुस्थित रहता है। एक सिपाही से हम और अधिक क्या आशा कर सकते हैं । ऊँची बुद्धि के लिए आवश्यक है कि वह बुद्धि
( कन्या राशि ) का प्रयोग करे परंतु किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचाए। यही कारण है कि बुध भावनात्मक चंद्र के नक्षत्र
‘हस्त’ में उच्च होता है। गुरु एक आध्यात्मिक ज्ञानी है। यदि यह ग्रह भावनात्मक वातावरण
( कर्क राशि ) में रहता हुआ भी एकांतवास कर सके, शून्य की सी स्थिति प्राप्त कर सके जो की निःसंदेश यह ग्रह पुष्य नक्षत्र
( जो कि शून्यता घोतक शनि का नक्षत्र है ) में प्राप्त करता है तो इसने ज्ञान की स्थिति को प्राप्त कर लिया। शुक्र विलासी है इसे ज्ञान की बात नहीं भाती। यदि यह गृह ज्ञान की राशि
( मीन ) में रहकर भी समुचित बुद्धि में
( रेवती नक्षत्र जो की बुध का नक्षत्र है उसमे ) रह पाये तो यह शुक्र की परम साधना होगी।
शनि निर्धन है। यदि इसे विलास
( तुला राशि शुक्र ग्रह ) के वातावरण में रखा जाये और फिर भी वह ज्ञान की स्थित
( गुरु के नक्षत्र ) में रह पाये तो यह उसकी उच्चतम साधना होगी। इस प्रकार ग्रह गुण-स्वभावनुकूल उच्च मनोवैज्ञानिक स्थिति पाकर उच्च होते हैं।