सूर्य :
अति प्राचीन काल से विभिन्न सभ्यताओं को सूर्योपासना विधि के बारे में ज्ञात था । सूर्य पुरे विश्व को प्रकाशित करता है और इस संसार के जीवन को चलाता है । सबसे मोहक प्रार्थना ‘गायत्री’  है जिसे ब्रह्मगीत समझा जाता है । इसे हम सूर्य में निवास करने वाले
‘ नारायण भगवान ‘ के प्रति करते हैं वे हमें सुरक्षा तथा ज्ञान प्रदान करें ।

इस प्रार्थना की भवना सांप्रदायिकता से परे तथा विश्वव्यापी है । हमारे प्राचीन वास्तुशास्त्र की नीव इस रीति से डाली गई है कि भवनों में रहने वालों को सूर्य-किरणों और सूर्य-ऊर्जा जैसे ताप, प्रकाश, अल्ट्रावायलेट किरणों का अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके । सूर्य की किरणें विटामिन डी का एकमात्र विश्वसनीय स्रोत है,
( सूर्य के सामने नग्न त्वचा स्वयं उसकी किरणों से विटामिन डी सोख लेती हैं ) जो कि पृथ्वी पर जीवन को बनाये रखने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं । इसके अतिरिक्त सूर्य किरणों में सात रंग
(VIBGYOR विबग्योर) होते हैं और उनका मानव जीवन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है, क्यों की उनसे अनेक रोग दूर हो जाते हैं । पूर्वी दिशा अत्यंत महत्त्व की है क्योंकि प्रातःकाल की सूर्यकिरणों में प्रकाश अधिक और ताप कम होता है, अतः वह सर्वाधिक लाभदायक है । दोपहर में पश्चिम की ओर जाते हुए सूर्य की गर्मी या ताप बढ़ जाता है और उससे इंफ्रारेड किरणें निकलती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।

उत्तरायण और दक्षिणायन का भी वैज्ञानिक महत्त्व है क्यों की उत्तरायण में दिन का समय रात्रि के समय से अधिक होता है, जिससे सूर्य का प्रकाश अधिक मिलता है । इसके साथ ही वस्तुशास्त्रों के कार्यों में विषुओं के अयन का भी ध्यान रखा जाता है । ( विषुव– वह समय जब सूर्य भूमध्य रेखा को पार करते हुए रात तथा दिन का समय समान कर देता है, 21 मार्च 23 सितंबर की अवधि ) प्राचीन परंपराओं के अनुसार, सभी महत्वपूर्ण समारोह जैसे विवाह, गृह प्रवेश आदि उत्तरायण में किये जाते हैं और ऐसा विश्वाश किया जाता है कि यह समय मनुष्य की मृत्यु तक के लिए पवित्र होता है।
( महाभारत के महान भीष्म पितामह ने बाणों की शय्या पर लेते हुए अपनी मृत्यु के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा की थी। )

इन्ही सब कारणों से वास्तुशास्त्र में यह विधान किया गया है कि पश्चिम और दक्षिण की तुलना में पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर अधिक खुले स्थान छोड़े जाएँ, अधिक खिड़कियां और दरवाजे लगाये जाएँ तथा अधिक छज्जे
( बाल्कनिज ) और बरामदे बनायें जाएँ । यह भी निर्धारित किया गया है कि पूर्व तथा उत्तर की दिशा में भूमि के स्तर को अधिक निचा बनाया जाए और किसी भी प्रकार के अवरोध और रूकावट, जैसे बड़े शिलाखंड, टीलें, ऊँची इमारतें, अहाते की ऊँची दीवार आदि को न रखा जाए ।

यहाँ तक की बड़े पौधे और ऊँचे वृक्षों को भी उत्तर तथा पूर्व के खुले स्थानों में लगाने से मना किया गया है ताकि प्रातःकाल की सूर्यरश्मियां बिना किसी रुकावट के आ सकें । वृक्षों की पत्तियों में क्लोरोफिल होता है, वे कार्बनडाइऑक्साइड, जल और सूर्य के प्रकाश से इसके द्वारा अपने लिए कार्बोहाइड्रेड बनाती हैं और ( फोटोसिंथेसिस प्रक्रिया द्वारा ) उप-उत्पादन के रूप में ऑक्सीजन छोड़ती हैं जो कि सभी जीवधारियों के जीवन की पहली आवश्यकता है। और यदि बृक्षों को मकान की केवल पश्चिमी और दक्षिणी दिशा में लगाया जायेगा तो उसमे रहने वालों को प्रातः सूर्य की किरणों के , वृक्षों की ऑक्सीजन के और दोपहर में सूर्य और उसकी गर्मी से सुरक्षा के तीन लाभ प्राप्त होंगे।

इसके अतिरिक्त हमारे पुरातन धर्मग्रंथों में यह उल्लेख भी है, कि कुओं, भूमिगत जलाशयों और इसी प्रकार के जल-भंडारों को उत्तर और पूर्व में तथा विशेष रूप से उत्तर-पूर्व कोण में निर्मित किया जाये ताकि प्रातःकाल की सूर्यकिरणों का सद्-उपयोग जल को सदा शुद्ध रखने के लिए किया जा सके क्यों की सूर्यप्रकाश रोगों के कीटाणुओं तथा जीवाणुओं को नष्ट कर देता है  ।

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