विश्व के सभी युगों का क्रमानुसार निम्नलिखित वर्णन है।

(अ) कृतयुग ( सत्ययुग ) : पवित्रता तथा शांति का युग, यह 1, 728000 वर्षों तक रहा। इसमें मनुष्यों की आयु लंबी होती थी और आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया नारायण पर ध्यान लगाने की थी ( सागर को नाराह कहा गया है, क्यों की उनको नर द्वारा उत्त्पन्न किया गया, और वह उनका पहला निवास स्थान ‘ अयन ‘ था, अतः उसे नारायण नाम दिया गया ) ।

( ब ) त्रेतायुग : यह 1, 296000 वषों तक रहा इसमें मनुष्यों की आध्यात्मिक प्रवित्ति और आयु में पहले से कमी आयी । इस युग में आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया कर्मकांड के अनुसार त्याग करना थी ।

( स ) द्वापरयुग : यह 8,64000 वर्षों तक रहा इसमें लोग आत्मसाक्षात्कार के लिए निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार मंदिरों में प्रचलित पूजा करते थे। लेकिन मनुष्यों की धार्मिक प्रवित्ति में और अधिक पतन होता गया ।

( द ) कलियुग : वर्तमान युग कुल 4,32000 वर्षों तक चलेगा, इसका प्रारम्भ लगभग 5000 वर्षों पूर्व से हुआ है । इसमें लोगों की आयु कम होती है । वे आध्यात्मिक विषयों अथवा आत्मसाक्षात्कार के प्रति कोई रूचि नहीं दिखलाते, इसी कारण वेदों को चार भागों में विभाजित किया गया, लिखित रूप दिया गया तथा विद्वानों को सौंपा गया, जिन्होंने उसका ज्ञान अपने विभिन्न शिष्यों को प्रदान किया। इस प्रकार विभिन्न वेदों की संबंधित शाखाएं बानी।

ईसामसीह से 2000 वर्ष पूर्व, आर्य रूस के किसी दक्षिण भाग के निकट से अपने वैदिक धर्मानुष्ठानों और रीति-रिवाजों के साथ भारत आये, यह आधुनिक इतिहासकारों का मत है, जो अब पहले जैसी प्रमाणिकता नहीं रखता, क्यों कि सिंधु घाटी की सभ्यता ( जिस पर आर्यों ने आक्रमण किया था, ऐसा कहा जाता है ) 3500 और 2500 ईसा पूर्व वहां पर फली-फूली । वहां के दो मुख्य नगरों हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में पाये जाने वाले पुरातत्व शास्त्र के प्रमाणों से यह ज्ञात होता है कि हिंदूधर्म में बाद में विकसित होने वाले कई पहलु प्रारंभिक सिंधु घाटी सभ्यता के अंग थे । वहां ध्यान मुद्रा में बैठे योगियों, भगवान शिव से मिलती-जुलती मूर्तियों जैसी वस्तुओं के अतिरिक्त यह प्रमाण भी पाया गया है कि वहां के दैनिक जीवन में मंदिर पूजा मुख्य भूमिका निभाती थी । यही वेदों में भी उस समय के लोगों के लिए महानतम आध्यात्मिक प्रगति की रीति निर्धारित की गयी थी ।

अथर्वेद में भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाली जातियों का उल्लेख है और वैदिकधर्म दूसरे मार्गों को भी स्वीकार करता है । तभी तो वैदिक धर्म ने दूसरे धर्मों को नष्ट करने की न कभी कोशिश की और न करेगा । अपने दृष्टिकोण में वह अत्यधिक विश्वव्यापक है । वैदिक संस्कृति के आज तक जीवित रहने का प्रतीक यह प्रार्थना है–
” सर्वे भवंतु सुखिनः ” अर्थात विश्व के सभी लोग सुखी हों।यह प्रार्थना आज भी दोहराई जाती है । वेदों का सबसे प्रिय सिद्धांत विश्व-स्तर पर भिन्नता में एकता है ।

हमारी मातृभूमि के प्रति विश्व अत्यधिक ऋणी है । धरती के किसी भी देश की एक भी जाती ऐसी नहीं है, जिसके प्रति संसार इतना ऋणी हो, जितना धैर्यशील हिंदू , (अर्थात प्राचीन भारतीय ) के प्रति । प्राचीन और आधुनिक काल में राष्ट्रिय जीवन के बढ़ते हुए ज्वार द्वारा महान सत्य तथा शक्ति के जो बीज डाले गए थे वे सदैव युद्ध में भयानक नाद करने वाली तुरहियों के माध्यम से दूसरी भूमियों पर गिरे । प्रत्येक विचार रक्तरंजित होने पर ही आगे बढ़ पाया । दूसरे राष्ट्रों ने मुख्य रूप से यही सिखाया, परंतु भारत हजारों वर्षों तक शांतिपूर्वक स्थित रहा ।

हमारे वैदिक धर्म ने जो सिखया है और हमारा जो स्वभाव है, उसी के अनुसार हमें अपना विकाश करना चाहिए । विदेशियों द्वारा थोपी गई कार्य करने की नीति को अपनाने का प्रयत्न करना व्यर्थ है, यह असंभव भी है । हमें दूसरी जातियों की संस्थाओं या प्रथाओं की निंदा नहीं करनी है, वे उनके लिए अच्छी हैं पर हमारे लिए नहीं । जो वस्तु एक व्यक्ति के लिए उपयुक्त है, वह दूसरे के लिए विष हो सकती है यह प्रथम शिक्षा है जो सीखनी है । उन्होंने जो आधुनिक व्यवस्था प्राप्त की है उसकी पृष्ठभूमि में दूसरे विज्ञान , दूसरी संस्थाएं और दूसरी परम्परायें हैं । हम स्वाभाविक रूप से अपनी मानसिक प्रवित्ति का पालन कर सकतें हैं, जिसके पीछे हमारी परम्परायें और हजारों वर्षों के पूर्व कर्म हैं । हम अपने ही पूर्व निर्मित मार्ग पर दौड़ सकते हैं और वही हमें करना पड़ेगा ।

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