|| भगवान का स्वरुप एवं
ध्यानम् ||
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥
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भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।
✪ चतुर्भुज स्वरूप
भगवान विष्णु शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करते हैं। शंख शब्द का प्रतीक है, शब्द का तात्पर्य ज्ञान से है जो सृष्टि का मूल तत्त्व है। चक्र का अभिप्राय माया चक्र से है जो जड़ चेतन सभी को मोहित कर रही है। गदा ईश्वर की अनंत शक्ति का प्रतीक है और पद्म से तात्पर्य नाभि कमल से है जो सृष्टि का कारण है। इन चार शक्तियों से संपन्न होने के कारण हरि को चतुर्भुज कहा है।
👉 वैष्णव सिद्धांत में विष्णु को सर्वशक्तिमान प्रदर्शित किया गया है बल्कि सूर्य जिनका एक और नाम “सूर्यनारायण” भी है को केवल विष्णु का ही एक स्वरुप माना जाता है।
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✪ शब्द व्युत्पत्ति
विष्णु शब्द विस् धातु से आया है (जो लैटिन में – vicus और सालविक में vas -ves का सजातीय है।) जिसका अर्थ है बैठना , उपस्थित होना।
अर्थात जो सभी स्थानों पर हो (सर्वव्याप्त) वही विष्णु है। वेदों के एक पुराने समालोचक यास्क ने अपनी रचना निरुक्त में विष्णु को ” सब स्थानों पर आने वाला बताया है।” उन्होंने ये भी लिखा है कि -” जो सभी बंधनों और दासत्व से मुक्त है वही विष्णु है।”
आदि शंकर ने “सहस्रनाम:” पर अपनी टीका में विष्णु शब्द की उत्पत्ति “विस्” धातु से ही बताई है। जिसका अर्थ है अंदर प्रविष्ठ होना। आदि शंकर (विष्णु पुराण 3.4.45) से – ” परम जीवों की शक्ति ने ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर लिया है।” यहाँ विस् का अर्थ है प्रवेश करना।
स्वामी चिन्मयानन्द ने “विष्णु सह्स्रनाम:” के अपने अनुवाद में इसे और भली प्रकार समझाया है: धातु विस् का अर्थ अंदर आना है, संसार की सभी वस्तुएं और जीव इन्ही से व्याप्त हैं । उपनिषद भी इस बात का अपने मन्त्र में स्पष्ट रूप से आग्रह करते हैं: इस परिवर्तनशील संसार में जो कुछ भी है। अर्थात वह अंतरिक्ष , समय और जड़ से बंधे हुए नहीं है। चिन्मयानन्द आगे कहते हैं : जिससे सभी वस्तुएं व्याप्त हैं वही विष्णु है।
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✪ वेद
वेद में विष्णु को संसार का रक्षक होने के कारण “गोप” कहा गया है। संस्कृत में गो का अर्थ तारे, आकाश, पृथ्वी, प्रकाश की किरण, स्वर्ग, मवेशी, वाणी, सूर्य, चन्द्रमा, गाय आदि होता है । इन सबका पालनकर्ता होने के कारण परमेश्वर को गोप, गोपाल, गोपेन्द्र आदि कहा जाता है।
✪ विष्णु स्वरुप विज्ञान
“शान्ताकारं”विष्णु भगवान् शांत आकार वाले हैं,
इसलिए उनके भक्त को भी यह नीती अपनानी चाहिये।
“भुजगशयनं” अर्थात विष्णु जी एक हज़ार फण वाले शेष् नाग की शैय्या पर सो रहे हैं।अगर किसी को पता चले की उसके घर में सर्प आ गया है तोह उसकी नींद उड जाती है। परंतु विष्णुजी उस महासर्प पर बड़े आराम से रहते हैं।उनकी नाभी से पद्म(कमल)उत्पन हुआ है।जिस पर ब्रम्हा जी विरराजते हैं।ब्रम्हा जी रजो गुणी हैं इसलिए उनको अपने से दूर रखा है।
तथा शेष नाग जिसके भीतर विष रूपी अग्नि समायी हुई है
उसको तमोगुण मानकर अपने नीचे दाब कर रख दिया है ।
तभी श्री विष्णुजी सत्वमयी हो पाये।
इसलिए जो साधक भगवान् जी को प्राप्त करना चाहें
उनको भी विष्णुजी का यह स्वरुप धारण करना पड़ेगा