जन्म पत्रिका में नौ ग्रहों में से शनि का अपना विशिष्ट स्थान है। बुरे फलों को देने के कारण शनि को सर्वाधिक रूप से पापी ग्रह माना गया है। दण्डाधिकारी कहते हुए इसे ‘ मृत्यु का देवता ‘   भी कहा गया है। इसके देव यम है, इसलिए शनि को अशुभ ग्रह मानते हुए उसके अशुभ फलों का वर्णन अधिक रूप से प्राप्त होता है। द्वादश लग्नों में द्वादश स्थानों पर शनि के भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होते हैम। जहाँ वृषभ एवं तुला लग्न में शनि योगकारक ग्रह होता है, वहीँ कर्क एवं सिंह लग्न में अकारक ग्रह । मकर तथा कुम्भ लग्न में कारक ग्रह होता है , तो धनु और मीन लग्न में उसके सामान्य फल प्राप्त होते हैं।

(1) प्रथम भाव में__ शनि मध्यम फलकारी होता है। यहाँ उसके अच्छे और बुरे दोनों ही प्रकार के फल देखने को मिलते हैं। उच्च राशि अथवा स्वराशि स्थिति में शनि लग्न में होने पर शुभ फलकारी होता है, वही नीच एवं शत्रु राशि में होने पर अशुभ फलकारी होता है शुभ स्थिति में व्यक्ति को अपनी रूचि के अनुसार सफलता प्राप्त होती है।

(2) द्वतीय भाव में__ स्थित शनि के कारण जातक का विवाह कुछ विलम्ब से होता है । वह ह्रदय से सबको चाहता हुआ अपनी भावनाओं को भली प्रकार से व्यक्त नहीं कर पाता। यदि शनि इस भाव में नीच राशिगत अथवा शत्रु राशिगत हो, तो व्यक्ति को अपने परिजनों से धोखा भी मिलता है।

(3) तृतीय भाव में__  स्थित शनि व्यक्ति के पराक्रम को बढाने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति के दो या उससे अधिक भाई बहन हो सकते हैं। अशुभ स्थिति में होने पर यह पराक्रम का नास भी करता है।

(4) चतुर्थ भाव में__ स्थित होने पर अधिकतर नकारात्मक फल ही होते हैं। इस भाव में शनि के बली होने पर व्यक्ति  जीवन में अपार संपत्ति एवं धनार्जन करते हुए भी उसका उपभोग नहीं करता है, बल्कि दूसरे लोग ही उसके धन का उपभोग करते है। सर्व सुख होते हुए भी उसे एक ऐसा दुःख होता है,  जो उसके अवसाद का कारण बनता है।

(5) पंचम भाव में__ शनि के मिश्रित फल होते
हैं । विवाह में देरी एवं संतान पक्ष में बाधा जैसे फल भी प्राप्त हो सकते हैं। इस भाव में शनि का उच्च राशिगत होना और नीच राशिगत होना दोनों ही नकारात्मक स्थितियां हैं। शनि यहाँ सामान्य बली होकर स्थित हो, तो अधिक शुभफलदाई होता है।

(6)षष्ठ भाव में__ होने पर शनि को सर्वाधिक शुभ फलदायी बताया गया है। शनि की इस भाव में स्थिति व्यक्ति को जीवन में अपार सफलता देती है। वह अपने पराक्रम से राजा के सामान जीवन यापन करता है। इस भाव में शनि उच्च राशिगत होने पर ही यह फल प्राप्त होते है। नीच राशिगत होने पर व्यक्ति जीवन भर सिर्फ प्रवास ( यात्रा ) ही करता है , तब भी उसे सफलता प्राप्त नहीं हो पाती है। इस भाव में शनि के शुभ फल 30 वर्ष के बाद ही प्राप्त होते हैं।

(7) सप्तम भाव में__ प्रायः शनि को अशुभ फलकरी ही बताया गया है । यह इस भाव में चाहे उच्च राशिगत हो या नीच राशिगत , उसके नकारात्मक फल ही अधिक देखने को मिलता है । सामान्य बली शनि अवस्य कुछ लाभप्रद होता है। विवाह में बिलम्ब एवं आय में कई प्रकार की बाधाओं का आना जैसे फलों की भी प्राप्ति होती है।

(8) अष्टम भाव __ शनि का कारक भाव है। इस भाव में वह निर्बल और पीड़ित होकर स्थित हो , तो उसके नकारात्मक फल होते है, वहीँ बली होकर स्थित होने पर अत्यधिक शुभ फल प्राप्त होते हैं। यह शनि व्यक्ति को जीवन में अपार सफलता देता है तथा जीवन में कभी धन की कमी महसूस नहीं होने देता।

(9) नवम भाव में__ शनि के शुभाशुभ फल होते हैं। उच्च राशिगत होने पर वह भाग्य को बढ़ाता है,  किन्तु भग्योदय 35 वर्ष की आयु के पश्चात् होने की संभावना होती है। नीच राशिगत होने पर वह व्यक्ति को नास्तिक बनाता है और दुर्भाग्य के कारण सफलताओं में भी बाधकारक होता है।

(10) दशम भाव__  को शनि का कारक भाव माना गया है। इस भाव में शनि निर्बल होने पर व्यक्ति आलसी प्रकृति का होता है और अपने आलस्य के कारण ही प्रयास करने से बचता है। बली शनि जातक को पराक्रमी बनाता है एवं उसे संसार से विरक्त करके योगी की भांति जीवन-यापन करवाता है।

(11) एकादश भाव में__ शनि की स्थिति शुभ फलकारी होती है। इस भाव में शनि चाहे किसी भी स्थिति में  विराजमान हो , वह व्यक्ति को 30 वर्ष के पश्च्यात ही आय प्राप्ति में सहायता प्रदान करता है।उससे पूर्व व्यक्ति को अपनी शिक्षा एवं प्रतिभा के अनुसार रोजगार की प्राप्ति नहीं हो पाती है।

(12)द्वादश भाव में__  शनि की स्थिति मध्यम फल देने वाली होती है। शनि इस भाव में नीच राशिगत अथवा शत्रु राशिगत होने पर जातक अत्यधिक सोच-विचार करने वाला होता है। आत्म्विश्वास में अत्यधिक कमी होती है । उच्च राशिगत एवं बली होने पर व्यक्ति प्रत्येक कार्य को सोच-विचार कर करने वाला होता है।

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